RAJSOOYA YAJNA (KRISHNA KI ATMAKATHA VOL. VI) (Hindi Edition)
MANU SHARMAराजसूययज्ञ
मेरीमनुजात की वास्तविकता पर जब चमत्कारों का कुहासा छा जाता है तब लोग मुझमें ईश्वरत्वकी तलाश में लग जाता हूँ। शिशुपाल वध के समय भी मेरी मानसिकता कुछ ऐसे ही भ्रम मेंपड़ गई थी; पर ज उसके रक्त के प्रवाह में मुझे अपना ही रक्त दिखाई पड़ा तब मेरी यहमानसिकता धुल चुकी थी। उसका अहं अदृश्य हो चुका था। मेरा वह साहस छूट चुका था कि मैंयह कहूँ कि मैंने इसे मारा है। अब मैं कहता हूँ कि वह मेरे द्वारा मारा गया है। मारनेवालातो कोई और था। वस्तुत: उसके कर्मों ने ही उसे मारा। वह अपने शापों से मारा गया।
संसारमें सारे शापों से मुक्त होने का कोइ्र-न-कोई प्रायश्चित्त है; पर जब अपने कर्मही शापित करते हैं तब उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं।
आखिरवह मेरा भाई था। मैं उसे शापमुक्त भी नहीं करा पया। मेरा ईश्वरत्व उस समय कितना सारहीन,अस्तित्वविहीन, निरुपाय और असमर्थ लगा!
कृष्णके अनगिनत आयाम हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लियागया है। किंतु आठ खंडों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला ‘कृष्ण की आत्मकथा’ मेंकृष्ण को उनकी संपूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसीभी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं कियाहै।
यथार्थकहा जाए तो ‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय कृति है।
‘कृष्णकी आत्मकथा श्रृंखला के आठों ग्रंथ’
नारदकी भविष्यवाणी
दुरभिसंधि्
द्वारकाकी स्थापना
लाक्षागृह
खांडवदाह
राजसूययज्ञ
संघर्ष
प्रलय